जब उत्तरी-अमेरिका में यूरोपीय उपनिवेशी मूल-अमेरिकियों की भूमियों पर कब्जा कर रहे थे, तब कुछ श्वेत लोगों ने मूल निवासियों की सहायता के लिए हस्तक्षेप किया। उन्होंने मूल निवासियों की स्थिति के साथ सहानुभूति दिखाई, उनकी ओर से संघर्ष किया, और सत्ता में बैठे श्वेत लोगों के साथ वार्ता करने में उनका प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने मूल निवासियों के विश्वास को जीता, परंतु अंततः उन्हें धोखा देते हुए यूरोपीय औपनिवेशिकों से जा मिले।
मूल निवासी यदि स्वयं अपना प्रतिनिधित्व करते, तो इतनी बुरी स्थिति में नहीं होते। जो पहले संरक्षणकर्ता बन रहे थे, उनमें से कुछ बाद में यह कहकर अपने अपराध-बोध से मुक्त हो गए कि उन्होंने सर्वोत्तम प्रयास किया, परंतु असफल रहे। कुछ ने अपने पक्ष से पलटने के लिए मूल निवासियों पर ही उलटे यह आरोप लगा दिया कि उनके समाज में मानवाधिकारों का स्तर खराब है।
अंत में गोरे लोगों को मध्यस्थ बनाकर मूल अमेरिकी निवासियों द्वारा अपनी लड़ाई लड़ने की नीति हानिकारक साबित हुई। उन्हें अपनी भूमियों से हाथ धोना पड़ा और नरसंहार का शिकार होना पड़ा। अश्वेत अमेरिकियों के विषय में भी इसी घटना ने स्वयं को दोहराया। अमेरिकी इतिहास में रीकंस्ट्रक्शन (1865-77) नाम से ज्ञात समय के पश्चात, अश्वेतों को भी यही सबक मिला कि अपने हित को आगे बढ़ाने के लिए गोरों के नेतृत्व पर निर्भर होना एक महत्वपूर्ण भूल थी।
इसी समय अश्वेतों ने अपने स्वयं के समाधानों और नीतियों के साथ स्वतंत्र रूप से प्रयोग करते हुए- और उनका विकास करते हुए- अपने स्वयं के नेताओं को तैयार करने का निर्णय लिया, जो कि गोरों के संरक्षण के अंतर्गत नहीं थे। भारत की सहायता के लिए संरक्षक के रूप में स्वयं को स्थापित करने वाली विदेशी अकादमियों जैसे कि हार्वर्ड विश्विद्यालय के साथ भी यही समस्या है।
वे भारत के जटिल विषयों में कूद पड़ते हैं, महत्वपूर्ण डेटाबेसों पर नियंत्रण बना लेते हैं, और मुद्दों को अपने अनुसार प्रस्तुत करते हैं। हां, उपर्युक्त उदाहरणों से भिन्नता यह है कि वे अपने संरक्षण के अंतर्गत स्वयं भारतीयों को ही प्रशिक्षित करते हैं। भावी नेताओं को तैयार करते हैं और उनके कॅरियर में सहायता करते हैं। यह अंततः भारतीय समाज पर औपनिवेशिक नियंत्रण जैसा ही है।
यह अंग्रेजों द्वारा पूरे भारत में जमींदारों के तंत्र को विकसित करने के समान है, जो अंग्रेजों को सर्वसाधारण के ऊपर शासन करने में उनकी सहायता करने के बदले में उनसे सहायता प्राप्त करते रहे थे। हार्वर्ड के पाठ्यक्रमों, संगोष्ठियों और अनुदानों की बहुत सारी विषय-वस्तु भारत के विकास के लिए उपयोगी प्रतीत हो सकती है, लेकिन समस्या उन अन्य प्रभावों से है जो युवा मस्तिष्कों में प्रवेश कर जाते हैं।
ऐसा लगता है कि भारत ने अपने भावी नेताओं की विचारधाराओं, सम्बद्धताओं और प्रतिबद्धताओं, तथा पहचान की समग्र-भावना को विकसित करने की परियोजना का कार्य विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंप दिया है। जबकि चीन ने एकदम भिन्न दृष्टिकोण अपनाया है। वह विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित से संबंधित रणनीतिक प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए अमेरिकी ज्ञान को अपने देश में लौटा लाता है, किंतु सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभावों को अमेरिका से चीन में लाने में रुचि नहीं दिखाता।
चीन अपनी सीमाओं के अंदर अमेरिकी वोकइज़्म को स्वीकार नहीं करता, उलटे वह अमेरिकी समाज पर प्रहार करने के लिए वोकइज़्म का उपयोग करता है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा वित्त-पोषित चाइना ग्लोबल टेलीविजन नेटवर्क का उपयोग करके चीन अमेरिकी बच्चों को लक्षित करते हुए अंग्रेजी में अनेक वीडियो का प्रसारण करके उलटे अमेरिका में ही क्रिटिकल रेस थ्योरी को बढ़ावा दे रहा है। हार्वर्ड की भारत-संबंधी परियोजनाओं को भी अन्य मुद्दों से अलग करके देखना भ्रमपूर्ण होगा।
- इंडोलॉजी के नाम पर विदेशी अकादमियां भारत-केंद्रित ज्ञान का एक संग्रह तैयार कर रही हैं। इसका रणनीतिक रूप से दुरुपयोग करते हुए भारत में सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन लाए जा सकते हैं।









